बुधवार, 16 मई 2012

लोक कलाएं हमारी बड़ी धरोहर


वरिष्ठ साहित्यकार डॉ उदयन वाजपेयी पिछले दिनों जमशेदपुर (झारखंड) में प्रभात खबर द्वारा आयोजित लोककला प्रदर्शनी ‘भोली रंग रेखाएं’ में आये थे और उन्होंने ‘लोककलाओं के अंतसर्ंबंध और चुनौतियां’ विषय पर अत्यंत सारगर्भित व्याख्यान दिया. पेश है हू-ब-हू व्याख्यान -

लोक कला शब्द भारत में बहुत पहले से उपयोग में नहीं है, यह अंगरेजी के फोक आर्ट का अनुवाद है. फोक शब्द में पशु, पक्षी, पेड़-पौधे आते हैं, जबकि लोक शब्द में मनुष्य आते हैं. पहले इसे देशी कलाएं कहा जाता था. दो किस्म की कलाओं का उपयोग भारत में बहुत पहले से होता आ रहा है, भारत उन अनूठे देशों में से है, जिनमें कला और कलाकार पर विस्तार से चर्चा होती आ रही है. भारत में कलाओं की गहरी स्वीकृति बहुत पहले से रही है. यहूदी, ईसाई व इसलामिक परंपरा वाले देशों में स्वतंत्र सत्ता वाली कलाओं की स्वीकृति नहीं थी. इन सभ्यताओं का कोई दार्शनिक आधार नहीं था. आप जानते होंगे कि बहुत समय तक यूरोप में आंगिक अभिनय की स्वीकृति नहीं थी. क्योंकि वहां यह मान्यता थी कि ईश्वर की बनायी हुई सृष्टि परफेक्ट है और परफेक्ट की नकल नहीं की जा सकती. इसीलिए यूरोप की नाटय़कला लंबे समय तक अविकसित रही. आधुनिकता की शुरुआत में इस पर काम शुरू हुआ.

यूरोप में शेक्सपीयर के नाटकों को पढ़ने की आदत सी थी. नाटकों में लगभग खड़े होकर संवाद बोल दिया जाता था, क्योंकि वहां आंगिक अभिनय की इजाजत नहीं थी. आंगिक अभिनय करना ईश्वर का अपमान करना माना जाता था. भारत में जो तमाम कलाएं हैं, उनका दार्शनिक आधार हमेशा रहा है. यह बड़ी बात है. कलाओं की स्वतंत्र सत्ता का दार्शनिक आधार होना सभ्यताओं के लिए अच्छा माना जाता है. इसलिए आप देखेंगे कि भारत में लंबे समय तक देशी परंपराएं, लोक परंपराएं, नाटय़ कला बड़ी समृद्ध रही हैं. इसलिए यह समझ लें कि इन तमाम कलाओं की बहुलता, जो हमारे देश में है उसका आधार हमारी इस सभ्यता में ही है. यह इसलिए हो सका क्योंकि भारत में यह माना जाता रहा कि कलाएं भी दूसरी ज्ञान परंपरा की तरह सत्य को प्रकट करने का एक वैध माध्यम हैं. कलाओं को भी मनुष्य के सत्य को प्रकट करने का एक स्वतंत्र अधिकार है, यह स्वीकृति भारत में रही है. आप कहेंगे कि इसमें क्या खास बात है? खास यह है कि यूरोप में लंबे समय तक यह माना जाता रहा है कि सत्य खोजने का काम तो धर्म का है. कलाएं ज्यादा से ज्यादा खोजे गये सत्य के प्रचार का काम कर सकती हैं. वह सत्य को खोजने या उदघाटित करने का काम नहीं कर सकतीं. यह यूरोप की विडंबना थी कि क्योंकि उनका मानना था कि उन्होंने बड़ी मेहनत करके यह दुनिया बनायी है. ऐसी मान्यता के बाद भी वहां कलाओं का बाद के दिनों में व्यापक विकास हुआ.

भारत में कलाओं के अस्तित्व का स्वतंत्र आधार हमेशा रहा है. उदाहरण के लिए कालीदास को कोई इसलिए नहीं पढ़ता कि वे शैव दर्शन के उदाहरण मात्र हैं. कितनी भी टीकाएं पढ़ लीजिए कहीं यह बात आपको नहीं मिलेगी. बल्कि उनकी पहचान एक स्वतंत्र रचयिता के रुप में है. कलाएं हमारी बड़ी धरोहर हैं, लेकिन न समझने के कारण धीरे-धीरे ओझल होती जा रही हैं. मैं फिर वहीं आता हूं जहां से मैंने अपनी बात आरंभ की थी. हमारे देश में लोक परंपरा शब्द का इस्तेमाल नहीं होता था, बल्कि देशी परंपराएं शब्द का इस्तेमाल होता था. वृहत देशी नाम से एक गं्रथ दसवीं सदी में लिखा गया था. मतंग मुनि ने उसकी रचना की थी. उसमें वे दो तरह की कलाओं का जिक्र करते हैं. एक को कहते हैं मार्गी और दूसरे को कहते हैं देशी. देश का मतलब स्पेश है. कंट्री बाद में हुआ. देशी कला यानी, दोहराव. इस कला का आधार दोहराव है. यह दोहराव से ही जिंदा रहती है. जैसे- करमा नृत्य और शहला नृत्य. आप कोई भी लोक नृत्य या लोक गीत देख लीजिए उसमें ज्यादातर दोहराव ही है. सब जानते हैं कि यह नृत्य क्या है. उस लोक गीत में, उस लोकनृत्य में सारे लोग शामिल होते हैं. साझा करते हैं. अगर आप ध्यान दें तो यह साझा करने, शामिल होने का ही नृत्य है. इसके जरिये पूरा समाज अपनी संबद्धता महसूस करता है. वह यह महसूस करते हैं कि वे एक हैं, हमारा एक-दूसरे से जुड़ाव है. देशी कलाओं के मूल में यह बात है कि उनमें से सामुदायिक चेतना का जन्म होता है. इससे हम अपनी सामुदायिक स्मृतियों को जिंदा रखते हैं. उसे साझा करते हैं. इस इलाके का मुङो नहीं पता पर भोपाल में गरबा नृत्य का आयोजन होता है. एक बड़े से अहाते में लड़के-लड़कियां गरबा करते हैं. एक मित्र ने मुझसे पूछा कि ये जो नकली गरबा नृत्य करते हैं, आप इस बारे में क्या कहेंगे? मैंने कहा यह एक पूरक नृत्य है. आज शहरी सभ्यता में लोगों के पास समय नहीं है लोग एक साथ नाचना-गाना भूल गये हैं. आप बतायें कि शहर में कितने लोग एक साथ नृत्य करते हैं. हम शहरी लोग संबद्धता को भूल गये हैं. दरअसल हमारे जेनेटिक सिस्टम में, हमारी गहनतम अनुभूतियों में एक-दूसरे के प्रति चाहना है. यह चाहना कैसे पूरी होगी. तो इसलिए ये लोग गरबा करते हैं. फिल्मी डांस करते हैं. हमारे मित्र और मशहूर रंगकर्मी सत्यदेव दूबे का मानना था कि फिल्मी गीत एक तरह का शहरी गीत है. इस बात में एक टूटा-फूटा सच है. शहरों में जब हम आये तो संबद्धता लाने वाले ये लोक नृत्य, लोक गीत कहीं छूट गये. फिर हमने संबद्धता महसूस करने के लिए आधुनिक प्रतीक ईजाद किये, लेकिन उसका कुछ हो नहीं पा रहा है. उदाहरण के तौर पर राष्ट्रगान, झंडोत्ताेलन को ले लीजिए, पर इस सबसे हम महज औपचारिक तौर पर ही जुड़ाव महसूस करते हैं. जो जुड़ाव लोकगीत, लोकनृत्य से होता था वह दुर्भाग्य से शहरों में उपलब्ध नहीं है. एक लंबे समय से भारत ही नहीं पूरी दुनिया के गांवों में लोकगीत, लोकनृत्य एक सामाजिक संबद्धता का प्रतीक रहा है. सामाजिक संबद्धता को लोगों के भीतर जीवित रखते हैं सामुदायिक बोध को बनाये रखते हैं क्योंकि इसमें दोहराव है, क्योंकि इसमें सब तरह के लोग शामिल रहते हैं. यह एक तरह की कला है जिसे मतंग मुनि ने देशी कला कही. दूसरी तरह की कला मार्गी है. इन दोनों तरह के कलाओं में कोई छोटी या बड़ी नहीं है. दो अलग उपयोग है, दो अलग चरितार्थ हैं.

मार्गी शब्द मार्ग से बना है और मार्ग शब्द मृग्या से. मृग्या का अर्थ शिकार करना होता है. मार्ग का अर्थ दरअसल रोड नहीं होता. मार्ग का अर्थ होता है वह रास्ता जिससे जाकर शिकार करते हैं. मार्ग का अर्थ होता है नया रास्ता. क्योंकि शिकार अगर आप बने बनाये रास्ते से करेंगे तो वह भाग जायेगा. आपको लगातार नया रास्ता अन्वेषण करना होता है उसे मार्ग कहते हैं. मार्गी वह कला है जो हर बार अपने लिये नया मार्ग ढूंढती है, जो हर बार नये ढंग से बनती है, हम उन्हें शास्त्रीय कला भी कहते हैं. उदाहरण के लिए आप फणीश्वर नाथ रेणु का कोई उपन्यास पढं़े. रेणु ने उपन्यास उस तरह से नहीं लिखा जिस तरह से उनके पहले लिखा जाता. रेणु ने उपन्यास लिखने के लिए नया रास्ता ढूंढा. इसलिए रेणु एक मार्गी उपन्यासकार हैं. शास्त्रीय कला को क्लासिकल आर्ट भी कहते हैं. मैं आपको स्मरण करा दूं कि क्लासिकल शब्द यूरोप से आया है. चूंकि वहां की कला का कोई इतिहास नहीं था, वहां कलाओं पर पाबंदी थी तो वे ग्रीस से खींचकर ले आये और कहा कि यह हमारा अतीत है. क्लासिकल का मतलब क्लोज भी होता है पर हमारे यहां शास्त्रीय का मतलब मार्गी से है. शास्त्रीय कलाओं के तहत आप देखेंगे कि कोई भी नाटक या गायन चाहे कितनी बार भी हो, हर बार नये तरीके से होता है. आप जब भी उसे देखेंगे तो पायेंगे कि उसमें मूल बात वही है लेकिन उसे नये तरीके से पेश किया जा रहा है. चूंकि आप इसकी कल्पना पहले से नहीं करते हैं इसलिए आप उसमें शामिल नहीं होते हैं. दरअसल यह कला आपको विचारशील बनाती है, आप नये तरीके से सोचते हैं. यह आपको अपने आप से प्रश्न करना सिखाती है. गार्गी कला का निहितार्थ यह है कि यह हर बार खुद को नये ढंग से प्रस्तुत करती है/रचती है. यह आपको सजग बनाती है और आत्म सजग बनाना ही इस कला की बहुत बड़ी विशेषता है. इसलिए जो लोग यह कहते हैं कि साहब हमें तो देशी कला ही चाहिए क्योंकि इसमें अधिक लोग शामिल होते हैं वे गलत करते हैं. देशी कला भले ही आपको ज्यादा से ज्यादा लोगों में शामिल करती हो पर आपको आत्म सजग बनाने का काम तो मार्गी कला ही करती है. और लोकतंत्र बिना व्यक्ति के आत्मसजग हुए सफल नहीं हो सकता. सिर्फ सामुदायिक बोध भर से समाज नहीं चला करता. समाज को सामुदायिक बोध चाहिए तो आत्मसजगता भी चाहिए.

भारत में देशी और मार्गी कलाओं को बराबरी का दर्जा मिला हुआ है. दोनों कलाओं का निहितार्थ अलग-अलग है पर भूमिका एक है. दोनों तराजू पर एक बराबर हैं. जितनी भी ताकतवर सत्ताएं रहीं किसी ने भी मार्गी कला को प्रश्रय नहीं दिया. चाहे वह हिटलरशाही हो या नाजीवाद हो. इन्होंने हमेशा मार्गी कला को हासिये पर रखा. क्योंकि मार्गी कला हमेशा एक सजग नागरिक पैदा करती है. इन शासकों को खतरा तो लोक कला से भी महसूस होता था. इसीलिए उन्होंने जानबूझकर दोनों कलाओं को अलग-अलग तरीके से नुकसान पहुंचाया. यूरोप में तो एक खास तरक की कविता लिखने पर भी पाबंदी थी. दरअसल इन शासकों को यह लगता था कि अगर नागरिक सजग होंगे, जागरूक होंगे, तो सवाल करेंगे. सामाजिक और सत्ता की गड़बड़ियों के प्रति जवाबदेही तय करने के सवाल पैदा होंगे. सवाल पैदा होंगे तो उसके जवाब देने पड़ेंगे, जवाब देने पड़ेंगे तो प्रभुत्ता में दरार पैदा होंगे और दरार पैदा होंगे तो इससे सत्ता को खतरा हो सकता है.

जब तेजी से हमारी सभ्यता का शहरीकरण हुआ तो हम शहर तो आ गये पर लोककलाओं को गांवों में ही छोड़ आये. इस कारण ज्यादातर शहरों में सामाजिक संबद्धता धीरे-धीरे कम होती गयी. उसका परिणाम आज हम सभी महसूस करते हैं. हममें से बहुत सारे लोग यह महसूस करते हैं और यह सच भी है कि विभिन्न संस्थाओं में काम करने वाले लोगों को जैसे कहीं और से ज्यादा पैसा या बड़ा पद मिलता है वे वहां चले जाते हैं. यानि हमारे अंदर एक संगठन के प्रति, एक समाज के प्रति, एक संस्था के प्रति जवाबदेही खत्म हो रही है और ऐसा पढ़े-लिखे लोग कर रहे हैं. यानि बड़ी-बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों के पास भी सामाजिक संबद्धता की युक्ति नहीं है. यह हमारे लिए बड़ा लॉस है. तभी तो कहीं कोई व्यक्ति राष्ट्रगान या राष्ट्रध्वज का अपमान करता है तो हमें आश्चर्य होता है. यह इसलिए है क्योंकि अधिकतर लोगों के अंदर सामुदायिक बोध या सामाजिक संबद्धता का घोर अभाव है. यह औद्योगिकीकरण के बाद तेजी से हुआ है. अब शहरों में जो कलाएं बची हैं वह ज्यातर मार्गी कला है. पर हमारे अधिकतर राजनेताओं को इसकी समझ नहीं है. हां, पहले हमारे कुछ नेता ऐसे थे जिनको कलाओं की समझ थी. अब तो अधिकतर ब्यूरोक्रेटस कला को साजो-सामान की वस्तु भर मानते हैं. उनको लगता है कला है तो ठीक है, नहीं है तो भी ठीक है. इसीलिए देश भर की कला संस्थाएं आज संकट के दौर से गुजर रही हैं.

अब हम कलाओं के दूसरे पक्ष पर आते हैं. कलाओं के अंतर संबंध का भी एक सैद्धांतिक आधार है. मैं यह लेखक की हैसियत से कहते हुए गर्व महसूस कर रहा हूं कि भारत में तमाम कलाओं के होने का एक सैद्धांतिक आधार मौजूद है और किसी दूसरी सभ्यता में यह सैद्धांतिक आधार आपको नहीं मिलेगा. यह भरत मुनि के नाटय़ शास्त्र से लेकर विष्णु धर्मोत्तर पुराण तक में मौजूद है. पुराण शब्द सुनते ही हम किसी धर्म ग्रंथ की कल्पना करने लगते हैं पर पुराण का अर्थ होता है पुराना. दरअसल, हमारे दिमाग में वही बातें हैं जो अंगरेज बता गये हैं. क्योंकि अंगरेजों का मानना था कि भारत में केवल धर्म है, ज्ञान तो है ही नहीं. पर मुङो यह लगता है कि वे भारत को समङो ही नहीं थे. यह बड़े आश्चर्य की बात है कि भारतीय सभ्यता को जितना कम भारतीय समझते हैं उतना दूसरी सभ्यता के लोग नहीं. इसकी वजह काफी कुछ अंगरेज ही हैं. ब्रिटिश बुद्धिजीवियों ने भारत की गलत छवि प्रस्तुत करने में जितनी मेहनत की उसका कोई सानी नहीं है. उन्होंने इसके लिए काफी मेहनत की ताकि पूरी दुनिया में भारत की गलत छवि बने. और हमने क्या किया? आज तक हमारे विश्वविद्यालयों में, हमारे शिक्षाविदों ने कभी इस चीज को समझने की कोई चेष्टा नहीं की.

बहरहाल, अब हम भरत मुनि के नाटय़शास्त्र पर आते हैं. आप उसमें देखते हैं कि नृत्य भी है, गायन भी है और चित्र भी पर है नाटक के संदर्भ में. वे मानते हैं कि नाटक में इन सभी विधाओं का होना अनिवार्य है. विष्णु धर्मोत्तर पुराण भी महत्वपूर्ण पुराण है. इसमें एक कहानी आती है. वह बड़ा महत्वपूर्ण और रोचक है. कहानी यह है कि राजा विष्णु को एक बार इच्छा हुई कि एक मंदिर बनवायें. मंदिर भव्य हो, कलात्मक हो. इसके लिए शिल्प की आवश्यकता थी तो वे महर्षि मार्कण्डेय के पास गये. उनसे आग्रह किया कि आप मुङो शिल्प सिखा दें. मार्कण्डेय ने कहा कि तुम शिल्प तब सीख सकते हो, जब तुम्हें चित्र बनाना आता हो. राजा ने कहा कि ठीक है आप मुङो चित्र बनाना सिखा दीजिये. मार्कण्डेय ने कहा कि चित्र तुम तभी बना पाओगे जब तुम्हें नृत्य आता हो. राजा बोले- अच्छी बात है, तो आप मुङो नृत्य सिखाइये. इस पर मार्कण्डेय ने कहा- नृत्य तुम्हें तब आयेगा जब तुम्हें संगीत आता हो. राजा बोले- अच्छी बात है. पहले संगीत सिखाइये तो मार्कण्डेय ने कहा- संगीत तभी सीख पाओगे जब गायन आता हो और गायन तब आयेगा जब काव्य आता हो. आप जानते होंगे कि नाटक को काव्य भी कहते हैं. कालीदास ने कोई स्वतंत्र काव्य नहीं लिखा पर उन्हें महाकवि कहते हैं. हमारे यहां नाटय़ कला को काव्य भी कहा जाता है. इस कहानी का अर्थ यह है कि हर कला एक-दूसरे से संबद्ध है. ऐसा कोई नृत्य नहीं जिसमें गायन न हो, चित्र न हो, शिल्प न हो और ऐसा कोई काव्य नहीं जिसमें नृत्य न हो, शिल्प न हो, चित्र न हो. भारत में यह पहली बार विष्णु धर्मोत्तर पुराण में प्रतिपादित किया गया कि हर कला में हर कला समाहित है. भले ही हर कला का अपना वजूद हो पर कलाएं एक-दूसरे में समाहित हैं. पाटकर कला भी एक तरह का सिनेमा आर्ट है. सिनेमा में ऑडियो-विजुअल ही होता है. पाटकर कला को देखकर क्या आप ऐसा महसूस नहीं करते कि सिनेमायी दुनिया से पूर्व यह कला मनुष्य के सिनेमा बनाने की आकांक्षा का प्रतिबिंब है. हम जानते हैं कि भारत में बहुत सी जातीय सभ्यताएं ऐसी थीं जिनमें कपड़ों को स्क्रॉल बनाकर चित्रों और गायन के माध्यम से कथाएं सुनाने का चलन था.

लोहा बनाने वाली जनजाति. 19वीं शताब्दी के अंत तक दुनिया का सबसे बढ़िया लोहा अगड़िया जाति बनाती थी. उनकी छोटी-छोटी भट्ठियां होती थी. इन अगड़ियों के लोहा बनाने पर बंदिश की गयी थी. यह बंदिश अंगरेजों ने लगायी थी. आश्चर्यजनक यह कि वह बंदिश आज भी है. अगड़िया समाज के जाति पुराण में एक कथा है बहुत ही रोचक. एक बार पृथ्वी हिलने लगी तो उसे स्थिर करने के लिए ईश्वर ने अगड़ियों को यह भार दिया कि वे एक ऐसा तीर बनाएं जो पृथ्वी के आर-पार हो जाए ताकि उसे स्थिर किया जा सके. आप कल्पना कीजिये आजकल पृथ्वी का चित्र गुगल वर्ल्ड पर देखते रहते हैं. तो पृथ्वी को हिलाइये और फिर उसमें कील डालिये. सोचिये क्या कल्पना है अपने बारे में. और पृथ्वी हिलना बंद हो गयी. अगड़िया जाति पुराण में इसे गाकर सुनाते हैं. ये जो अगड़िया थे ये लोहे के नगर में रहते थे. इसमें गर्म लोहे के लाल वृक्ष होते थे. गर्म लोहे की नदी बहती थी. मैंने जब यह कहानी सुनी तो मेरे रोंगटे खड़े हो गये. इस नदी में अगड़िया झुककर गर्म लोहे का पानी निकालकर पीते थे. ऐसी थी अगड़िया जाति. तो ये पूरे जाति पुराण सुनाये जाते थे. ये चित्रित होते थे. बड़े खूबसूरत चित्र और बड़ी खूबसूरती से गाये जा सकते थे. ये इसलिए होता था क्योंकि चित्र में गान उपस्थित होता था और गान में चित्र. और ये बात इस परंपरा के लोगों को सहज पता थी. ये सामान्य जानकारी थी, यहां मैं विश्वविद्यालयों में उपस्थित जानकारी की बात नहीं कर रहा है. मैं रोजमर्रा में साधारण लोगों के जीवन की जानकारी की बात कर रहा हूं. हमें यह गलतफहमी है कि भारत में अंगरेजी पढ़े-लिखे लोगों को या यूनिवर्सिटी में पढ़े-लिखे लोगों को कि ज्ञान यूनिवर्सिटीज के रास्ते ही आता है. यूरोप में यूनिवर्सिटीज ने बड़ी भूमिका निभायी है. दुर्भाग्य से यह भारत में नहीं हुआ है. भारत में आज भी संगीत के 300 कॉलेज हैं. पिछले 50 साल से हैं. यहां के एक भी विश्वविद्यालय या कॉलेज ने, एक भी बड़ा गवैया पैदा नहीं किया. भीमसेन जोशी हों या जिया मोहिउद्दीन डागर साहब या आप कोई भी नाम गिनाते जाइये, मैं आपको उनके गुरुओं के नाम बताते जाता हूं, जो विश्वविद्यालय या कॉलेज व्यवस्था के सदस्य नहीं थे. हमारी कॉलेज व्यवस्था ने कभी भी कला में कोई अनोखा बड़ा व्यक्तिव पैदा किया इसके बड़े कम उदाहरण हैं. हमारे यहां आज भी जो आप सीखते हैं अपने परिवेश से, घर से, घरानों से. इसलिए संगीत घरानों की बात होती है. यहां तक कि पहाड़ी मेनेचर चित्रों के भी हमारे यहां घराने हैं. एक बीएन गोस्वामी करके बड़े इतिहासकार हैं, उन्होंने कहा कि ये जो राजाओं के नाम पर हमने घरानों या चित्र शैलियों के नाम दिये हैं, वो गलत हैं. और उनकी स्थापना बहुत सुंदर है, उनका कहना है कि ये जो घराने हैं यह घरों में रहकर लोगों ने कलाएं सीखी हैं. ये विश्वविद्यालयों या सार्वजनिक संस्थाओं में नहीं सीखे गये हैं. इसका अर्थ यह है कि अब तक हमें वे संस्थाएं बनाना नहीं आया, जो भारतीय कलाओं की ठीक से शिक्षा-दीक्षा दे सकें.

बहरहाल, ये दूसरी बात है, लेकिन एक बड़ी बात जो भारत में हुई कि हमारे यहां यह समझ पैदा हुई कि हर कला, हर एक कला में मौजूद है और एक-दूसरे से जुड़ी हैं. इसका एक अंतिम उदाहरण आपको देकर अपनी बात समाप्त करूं गा. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश में जो जातियां हैं उनमें एक बड़ा आदिवासी समुदाय है गोंड़ जब मैं आदिवासी शब्द कह रहा हूं तो आप ये मानकर चलिए कि मैं कितनी कठिनाई से कह रहा हूं. आदिवासी शब्द 19वीं शताब्दी में बना था. यह ट्राइबल शब्द का अनुवाद है. हिंदी में सबके नाम लिये जाते थे. कोई आदिवासी या ट्राइबल कहकर अलग कैटेगरी नहीं बनायी गयी थी. क्योंकि हिन्दुस्तान में यह तमाम व्यापक समाज के अंग की तरह ही देखे जाते थे. ट्राइबल शब्द का किसी भी भारतीय भाषा में 19वीं सदी के पहले का अनुवाद मुङो बता देंगे तो मैं हार जाउंगा. मैंने रिसर्च किया है, नहीं है. आदिवासी शब्द बनाया हुआ शब्द है. कहीं से आदी ले आये और कहीं से वासी. जोड़कर बनाया गया शब्द है यह. पहले निषाद शब्द इस्तेमाल होते थे, उसी तरह हर समुदाय के लिए अलग-अलग शब्द इस्तेमाल होते थे. ये कैटेगरी जो है वो अंगरेजों ने बनाये थे. उनकी जो पॉलिसी थी कि हिन्दुस्तान को अलग-अलग कोटियों में बांटकर फिर आपस में झगड़ा कराओ, वही था. उसके लिए वो मेहनत करते थे. उनके एंथ्रोपोलॉजिस्ट थे, वे बताते थे कि वे अलग लोग हैं, आप अलग लोग हैं. फिर उनमें द्वंद्व शुरू हो जाता. इससे उन्हें रू ल करने में आसानी होती थी. आप हाटिंगटन को पढ़िये, अपनी किताब में उन्होंने लिखा है कि हम तो हमेशा रिबेल ग्रुप को सपोर्ट करते थे. अमेरिकन और यूरोपियनों का काम ये है कि पहले तोड़ो और जब टूट जाये तो उसमें जो सबसे छोटा वाला ग्रुप है उसे सपोर्ट करो. तो उसमें क्या होता था कि जो विध्वंस है वह बड़ा जल्दी हो जाता था, और ऐसा जो पूरी सत्ता को हिला दे. बहरहाल, तो एक बड़ा आदिवासी समुदाय है गोंड. मुङो लगता है यह भारत का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है. और इसने काफी लंबे समय तक भारतवर्ष में शासन भी किया है. काफी शक्तिशाली समुदाय था. इस समुदाय में इनके सात सब ट्राइब्स (उपवर्ग) थे. उनमें से एक उपवर्ग को परधान कहते हैं. और ये परधान काम ये करते थे कि ये गोंडों के घर में हर तीन साल में जाकर गीत गाते थे. और गीत में एक तरह से गोंडों की जो सामूहिक स्मृति है उसकी वो उन्हें याद दिलाते थे. ये गीत गोंडों की चेतना को जागृत करने का काम करता था. दूसरा ये यदि किसी की मृत्यु हो गयी हो तो उसको पुरखों में मिलाने का काम करते थे. जो बहुत सारे लोग यहां गया जाकर करते हैं. भारत में यह वेदों से ही मान्यता रही है कि किसी आदमी की मृत्यु हो रही हो तो पुरखे आकर उसे ले जाते हैं. क्योंकि आदमी पहली बार मरता है तो उसको थोड़ा अटपटा लग रहा होता है तो इसलिए उसको रिसीव करने के लिए पुरखे आते हैं. ये बहुत जगह आपको नाटकों में भी मिलेगा. क्योंकि यह जो विचार है कि मृत्यु के क्षण में क्या होता है, हर सभ्यता इसका कयास लगाती है. हर बड़ा दार्शनिक इस पर चिंतन करता है. तो इसी परंपरा के चलते हमारे यहां हर समुदाय में यह मिलेगा आपको कि मृतकों को पुरखों में मिलाया जाता है ताकि जो मृतक हैं वो पुरखों का जो एक बड़ा ब्रrांड है उसके सदस्य बन सकें. एक उदाहरण और ले सकते हैं. यदि आप गृह प्रवेश करते हैं तो जो उसकी पूजा होती है यदि उसे आप ध्यान से देखें और यह भूल के कि आप बड़े आधुनिक शिक्षा संपन्न हैं, तो आप पायेंगे कि दरअसल नये घर को ब्रrांड का नागरिक बनाया जाता है. पहले उस स्थान की पूजा होती, फिर गांव की और फिर एक देवता की और फिर ब्रrांड के जो देवता हैं ब्रrा-विष्णु-महेश उनकी. तो गोंडों में मृतकों को पुरखों के साथ मिलाने का काम परधान करते थे. ये जो परधान थे खुद कभी खेती नहीं करते थे. ये सिर्फ अपना बाना बजाते थे. यह सारंगी तरह का ही एक वाद्य होता है, जिसमें सिर्फ एक तार होता है. और वे बाना बजाकर ये गीत गाते थे और कथाएं कहते थे. यह शताब्दियों से हो रहा था. गोंड इन्हें आर्थिक सहायता देते थे. जब वे इनके घर जाते थे गाना गाने, कहानी कहने तो गोंड परिवार उन्हें गेहूं देते, बरतन देते. और उसमें एक व्यवस्था यह भी थी कि यदि इस बीच कोई मर गया हो तो उसके आधे बरतन, आधे कपड़े, आधे जेवर वह भी परधान को दे देगा, ताकि उसका जीविकोपाजर्न हो सके. यह समाज की एक व्यवस्था है कि वे अपने कलाकारों को किस तरह संभालता है. लेकिन जब गोंडों की ही हालत बिगड़ गयी. वे इस हालत में नहीं बचे कि वे परधानों का समर्थन कर सकें, उन्हें संभाल सकें. उनकी देखभाल कर सकें. तो ये परधान जो सिर्फ गाना गाया करते थे, वे धीरे-धीरे मजदूर होते गये और बहुत बुरी हालत में चले गये. फिर क्या हुआ, 20वीं शताब्दी में अभी से महज 30 वर्ष पहले एक अदभुत घटना घटी और चित्रकला की दुनिया में मैं समझता हूं कि उस शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण घटना भारत के लिए तो यह रही ही रही. हुआ यह कि इन परधान संगीतकारों में जो अब मजदूर हो चुके थे, जो विपन्न हो चुके थे, जिनके पास गीत गाने के अवसर नहीं थे, उनमें से एक लड़के ने चित्र बनाने शुरू कर दिये. उसका नाम जनगढ़ सिंह श्याम था. और उसने जैसे ही चित्र बनाना शुरू किया, बहुत बड़ी संख्या में परधान गायकों ने चित्र बनाने शुरू कर दिये. उनके भीतर का जो संगीत था वह चित्रों में अंकित होने लगा. यह एक ऐसी घटना है कि आप गुगल पर जाकर जनगढ़ सिंह श्याम टाइप करेंगे तो डेढ़-दो सौ पóो उस पर मिलेंगे. ये चित्र अनूठे हैं. इसकी जो शैली है वे एकदम अनूठे. धीरे-धीरे वे कहानियां जो वे गाते थे वह चित्रों में आने लगे. उनकी बहुत सारी सामाजिक स्मृति की जो चीजें थीं, वह चित्रों में आने लगी. जब मैं इस पर काम कर रहा था तो मुङो लगा कि यह घटना तब घटी होगी जब वेदों से शुरू होकर शिल्प बने होंगे. वैदिक देवी-देवता जितने भी हैं वे तो शब्द हैं. वेदों में तो काई डिस्क्रिप्शन नहीं है कि वे दिखते कैसे होंगे. ठीक यही घटना वाचिक से चीजों के चित्रों में आने में हुई. और यह इसलिए हुआ क्योंकि उस गीत में चित्र तो पहले से मौजूद था. और इस अदभुत घटना को भारत के विष्णु धर्मोत्तर पुराण के जरिये ही समझा जा सकता है, कि आखिर ये कैसे हो गया. रवींद्रनाथ टैगोर अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में चित्र बनाना शुरू कर देते हैं, ये कैसे समझायेंगे आप. आज तक यूरोप के आर्ट हिस्टोरिस्ट इस बात को नहीं समझा सके कि रवींद्रनाथ टैगोर इतना बड़ा कवि, उपन्यासकार अचानक कैसे चित्र बनाने लग सकता है. और उन्होंने अनोखे चित्र बनाये. और यह इसलिए हुआ क्योंकि टैगोर के काव्य में चित्र की संभावना पहले से थी. सिर्फ उन्होंने जो नजर नहीं आ रहे थे, उसे पेज पर दृश्य कर दिया. धन्यवाद




डॉ उदयन वाजपेयी : परिचय

दो कविता-पुस्तकें, तीन कहानी संग्रह, दो निबंध संग्रह, प्रकाशित. फिल्मों व नाटकों के लिए भी लेखन. कुमार शहानी और रवींद्र नाथ टैगोर के उपन्यास चार अध्याय पर आधारित फिल्म और उन्हीं की बांसुरी पर फिल्म में संवाद लेखन. हाल ही में परधान चित्रकला पर सुदीर्घ निबंध जनगढ़ कलम प्रकाशित. कविताओं के अनुवाद तमिल, ओड़िया, बांग्ला, फ्रांसीसी, पोलिश, स्वीडिश समेत अनेत भाषाओं में. वर्तमान में भोपाल में रह कर साहित्य, कला और सभ्यता की पत्रिका समास का संपादन. पेशे से डॉक्टर और मेडिकल कॉलेज में पढ़ाते भी हैं.





रविवार, 13 मई 2012

साइबर जगत में ‘सत्यमेव जयते’ की धूम

मशहूर अभिनेता आमिर खान के पहले टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ को दर्शकों का जबर्दस्त समर्थन मिल रहा है और एक सप्ताह के अंदर ही यह टीवी शो सोशल नेटवर्किग वेबसाइटों पर छा गया है. दुनिया की सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक पर ‘सत्यमेव जयते’ के पेज को 747,572 लोगों ने अब तक ‘लाइक’ किया है और 356,838 लोग इस शो की चर्चा कर रहे हैं. प्रत्येक रविवार को सुबह 11 बजे प्रसारित हो रहे इस टीवी शो की लोकप्रियता का आलम यह है कि बच्चे, बूढे, जवान सभी इस शो को न केवल देख रहे हैं बल्कि आमिर खान द्वारा उठाये गये मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं. ‘चुप्पी तोडो’ के नारे के साथ बाल यौन शोषण पर आज दिखाये गये शो को अब तक 3504 लोगों ने फेसबुक पर ‘लाइक’ किया है और 353 लोगों ने इस शो पर अपनी टिप्पणियां दी हैं. आमिर ने आज ‘सत्यमेव जयते’ के दूसरे एपिसोड में बालयौन शोषण का मुद्दा उठाते हुए कहा कि बालयौन शोषण एक डरावनी वास्तविकता है और शोध बताते हैं कि करीब 53 प्रतिशत बच्चे या दो में से एक बच्चा बाल यौन शोषण का शिकार रहा है.







मंगलवार, 8 मई 2012

चिंतित हूं कि मेरे पास कोई चिंता नहीं है

थोबड़ापोथी (फेसबुक) के सभी मुरीदों को मेरा हार्दिक अभिवादन. मित्रों! कई लोग मुझ अनामदास से नाराज हैं क्योंकि इससे उन्हें मेरे सरनेम का अंदाजा लगाने में मुश्किल हो रही है. ऐसे लोगों को मैं कबीर काका की याद दिलाते हुए कहना चाहूंगा, ‘जात न पूछो साधु की.’ मेरे अनुसार तो इसका अभिप्राय यह कि जिसकी कोई जाति नहीं होती, वह साधु होता है. यह तो सभी जानते हैं कि साधुओं की कोई जाति नहीं होती. पर इसका अभिप्राय आप यह कतई न लगायें कि मैं साधु हूं. अब छोड़िए भी, मैं कहां इस ‘धर्मसंकट’ में फंस गया.

दरअसल, मैं यहां इसलिए अवतरित हुआ हूं कि आप सभी से अपनी परेशानी बांट सकूं. परेशानी यह है कि इन दिनों मुङो एक चिंता खाये जा रही है. चिंता यह है कि मुङो कोई चिंता ही नहीं होती, जबकि कई लोग हमेशा चिंता में डूबे रहते हैं. चुनाव हो रहा हो तो चिंता, नहीं हो रहा तो चिंता. चुनाव में हार गये तो चिंता, जीत गये तो चिंता. प्रत्याशी का नमा तय करना हो तो चिंता, प्रत्याशी का नाम तय न हो रहा तो चिंता. किरपा बरसे तो चिंता, किरपा बरसाने वाले पर धन बरसे तो चिंता. अन्ना हजारे अनशन पर बैठें तो चिंता, न बैठें तो भी चिंता. किसी पार्टी के बड़बोले प्रवक्ता उल्टा-सीधा बयान दें तो चिंता, कई महीने मौन साधे रखें तो चिंता. बारिश हो तो चिंता, बारिश न हो तो चिंता. मंत्री महोदय कुछ न करें तो चिंता और कुछ ‘कर’ दें तो और भी चिंता.

चिंता होने या न होने का मामला केवल बाहरी नहीं है, यह भीतर तक समाया हुआ है. तभी तो मैं अंदर से चिंतित होना चाहता हूं लेकिन हो नहीं पाता. पता है क्यूं? क्योंकि मेरी चिंता की वजह खुद ही चिंतित रहती है. वजह एक नहीं कई. बच्च स्कूल जाये तो चिंता, न जाये तो चिंता. शोरगुल मचाये तो चिंता, चुप रहे तो भी चिंता. मुङो ऑफिस में देर हो जाये तो चिंता और किसी दिन अगर ऑफिस न गया तो चिंता. खाने की तारीफ कर दूं तो चिंता, कुछ न बोलूं तो चिंता. अपने माता-पिता की बात करूं तो चिंता, ससुराल की बात करूं तो चिंता. थोड़ा ठीक-ठाक होकर घर से निकलूं तो चिंता, फटीचर बना घर में आलसी की तरह पड़ा रहूं तो भी चिंता.

मैं चिंता के इतने आयाम देख चुका हूं कि चिंता मुङो देख कर दूर से ही प्रणाम करने लगती है. अब भला आप ही बताइए इस रचना में मैंने इतनी चिंताएं गिनायीं, आप चिंतित हुए क्या? इसलिए मैं थोबड़ापोथी (फेसबुक) के मित्रों से गुजारिश करता हूं कि नाम, उपनाम और पदनाम में क्या रखा है, भावनाओं को समङिाए. ‘भावना’ अच्छी हो तो ‘किरपा’ अपने आप आयेगी. भावनाओं का ‘समागम’ कीजिए. बरफी, गोलगप्पे, समोसा, हरी चटनी, लाल चटनी, खीर और बताशे को बतकही की मलाई में लपेट कर ‘भक्तों’ पर ‘न्योछावर’ कर दीजिए. देखिये चारो तरफ से बा-बा की पुकार सुनायी देगी.