गुरुवार, 5 नवंबर 2015

गाय, गीता और गप वाले देश में

माननीय प्रधानमंत्री जी. आप देश की जनता से हर महीने मन की बात करते हैं. आज मैं भी अपने मन की कुछ बातें आपसे कहना चाहता हूं. यह जुमला तो आपने सुना ही होगा कि इस देश में तीन चीजें खूब बिकती हैं - सिनेमा, सेक्स और सियासत. पर अब यह जुमला पुराना हो गया. अब इस देश में जो तीन चीजें खूब चर्चित हैं वह है - गाय, गीता और गप. जरा गौर फरमायें तो ये तीनों चीजें भारतीय संस्कृति में सनातन काल से रची-बसी हैं. कोई भी इससे अनभिज्ञ नहीं. पर इन दिनों ये तीनों चीजें नये कारणाें से चर्चा में हैं. अचानक से इस देश में कई लोगों के लिए गाय महत्वपूर्ण हो गयी है. इतनी कि सियासत भी पाकिकस्तान से लौटी भारतीय बेटी गीता के मुकाबले गाय को ज्यादा तवज्जो दे रही. यही कारण है कि इसे लेकर सोशल मीडिया पर तरह-तरह के गपों का सिलसिला जारी है. जब कभी भी सोशल मीडिया पर गप का दौर तेज होता है सरकार के माथे पर पसीना आने लगता है.उसे तरह-तरह की चिंता सताने लगती है और फिर सोशल मीडिया पर पाबंदी और निगरानी जैसी कवायद शुरू हो जाती है.
  आपको तो मालूम ही है कि हमारे देश में कई राज्य ऐसे हैं, जहां गाय को बिना अनुमति के नहीं मार सकते. लेकिन भैंसों को मार सकते हैं, उनका मांस खा सकते हैं और उनके चमड़ों से बैग बना सकते हैं. यहां तक कि एक गाय को मारने पर भारतीय दंड संहिता के मुताबिक शराब पीकर गाड़ी चलाने, छेड़छाड़, किसी को गंभीर चोट पहुंचाने या इनकम टैक्स चोरी जैसे अपराधों से कहीं ज्यादा सजा मिलेगी- वहीं बिना पलक झपकाए एक भैंस को मार सकते हैं. क्या गाय महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यओं से ज्यादा महत्वपूर्ण है. मार्च 2015 में महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने लोकसभा में बताया था कि महिलाओं पर बलात्कार और हमलों के मामलों में इजाफा हुआ है. महिलाओं और बच्चों के प्रति यौनहिंसा, दलितों और अल्पसंख्यकों के प्रति जातीय हिंसा की बढ़ती घटनाएं क्या कम महत्वपूर्ण है.  क्या इंसान पशुओं से भी ज्यादा बदतर है?
   एक बात और, गीता को जब पाकिस्तान में लावारिस हालत में पाया गया तो सबसे पहले उसे लाहौर के अनाथालय में भेज दिया गया. मूक-बधिर इस बच्ची को वहां नाम दिया गया फातिमा. कुछ दिन बाद इस बच्ची को वहां से ईधी फाउंडेशन के सदस्य और बिलकीस के पुत्र फैजल अपने साथ कराची ले आए. पहली बार जब उन्होंने उस बच्ची को अपनी मां बिलकीस से मिलवाया तो उसनेे हाथ जोड़े और बिलकीस के पैर छुए. बिलकीस तुरंत बोल पड़ीं कि यह बच्ची तो हिंदू है. और उन्होंने तुरंत उसका नाम फातिमा से बदलकर गीता रख दिया. यह वाकया यह बताने के लिए काफी है कि पड़ोसी मुल्क या दुनिया के दूसरे देश भारतीय संस्कृति के बारे में कितनी बारीक जानकारी रखते हैं, इसके बारे में कितना जानते हैं. तो क्यों न अब हम उन्हें अपने बारे में कुछ और भी बतायें. और हां, गप की चिंता न करें तो ही अच्छा. कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना...!

शनिवार, 16 मई 2015

भरी दुपहरी में चिंता पर छोटा सा चिंतन

भरी दुपहरी में मौसम को गरियाते हुए श्रीमतीजी को बाइक पर बिठा कर चला जा रहा था. अचानक ऐसा लगा कि कोई ‘रुको! रुको!’ की आवाज दे रहा है. मैं इधर-उधर देख ही रहा था कि पीछे से श्रीमतीजी ने झकझोरा- ‘सो रहे का जी. तब से रुकने को कह रही हूं सुन ही नहीं रहे.’ मैंने बाइक सड़क किनारे रोक दी. वे उतर कर मुङो आने को कहते हुए खुद सब्जी की दुकान पर चली गयीं. मैं भी बेमन से पीछे-पीछे चल पड़ा. सब्जियां लेने के बाद जब हम चलने लगे, तो दुकानदार ने कहा- ‘भइया! आज धूप बहुत है, डॉक्टर प्याज ले लीजिए न.’ मैंने चौंक कर कहा, ‘डॉक्टर प्याज!’  सब्जी दुकानदार ने श्रीमतीजी की तरफ देखते हुए कहा, ‘क्या भइया आप डॉक्टर प्याज नहीं जानते? अरे इका पाकिट में रखने से लू-गरमी नहीं लगती है इसीलिए इसे डॉक्टर प्याज कहते हैं.’ हमने कहा भाई प्याज बेचने का आइडिया तुम्हारा अच्छा है. एकदम मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ जैसा. वह बोला, ‘हम सच में कहत हैं भइया. इ सफेद वाला प्याज जो आप देख रहे हैं न इसे पाकिट में रख कर कितना भी धूप में निकलिए कुछो नहीं होगा. जो जानत हैं इसके बारे में वो जरूर खरीदत हैं.’ मैंने कहा, ‘इतना ज्ञान देने के लिए शुक्रिया. पर हमें नहीं चाहिए. क्योंकि हमें पता है कि लू कैसे नहीं लगती.’ वह बोला, ‘कोई बात नहीं, आप मत लीजिए, वैसे हम तो आप ही के लिए कह रहे थे.’ चिलचिलाती धूप ने कम, उस सब्जीवाले ने मेरा पारा ज्यादा चढ़ा दिया था. मैंने श्रीमतीजी से कहा, ‘अगर मैं एक मिनट भी और यहां रुका, तो मुङो लू जरू र लग जायेगी. चलो यहां से.’ रास्ते भर मैं उस सब्जी वाले की बातों पर हंसता रहा.
उस सब्जीवाले की लू से बचके तो मैं घर आ गया, पर जिस तरह उसने मेरे प्रति भरी दुपहरी में लू को लेकर चिंता जतायी थी, उस चिंता ने मुङो चिंतित कर दिया. चिंता करना एक राष्ट्रीय समस्या बन गयी है. इस समस्या ने हर किसी को जकड़ रखा है. दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल इस चिंता में हैं कि मीडिया को कैसे काबू में किया जाये. कोई प्रधानमंत्री की विदेश यात्र की अधिकता से चिंतित है, तो कोई भाजपा को जिता कर चिंता के मारे अंदर ही अंदर घुट रहा है. कोई कांग्रेस की पतली हालत से दुखी है तथा उसके भविष्य की चिंता में चिंतित है. तो कई लोग जनता परिवार के एकीकरण को लेकर चिंतित हैं. चिंता एक स्वाभाविक गुण है. लेकिन, क्या हर समस्या का हल केवल चिंता ही है? कई लोग तो महज इस बात के लिए चिंतित हो जाते हैं कि आज उनके मोबाइल पर एक मिस्ड कॉल तक नहीं आया. कई लोग अत्यधिक फोन आने से चिंता के मारे डायबिटीज के मरीज बन जा रहे हैं. और तो और कई युवा मित्र अपने मोबाइल की बैटरी जल्द खत्म हो जाने की परेशानी से चिंतित हो उठते हैं. चिंताओं की कमी नहीं, बिना ढूंढ़े ही हजार मिलती हैं. बचके रहिएगा!

बुधवार, 6 मई 2015

कह दो नाखुदाओं से तुम कोई खुदा नहीं

किसानों की मौत पर घड़ियाली आंसू बहाने व गंदे हथकंडे अपनाने वाले राजनीतिक दलों! तुम्हें क्या कभी इस बात पर भी रोना आया कि तुम्हारे अंदर की संवेदनाएं दिन-ब-दिन मर रही हैं. गांव का किसान अपने पड़ोसी से खेत की मेढ़ काटने का मुकदमा लड़ते-लड़ते जवानी खोकर बुढ़ापे की दहलीज में कब प्रवेश कर जाता है उसे खुद ही मालूम नहीं पड़ता. खाद-बीज और सिंचाई के मकड़जाल में किसान की जिंदगी इस कदर उलझी होती है कि उसकी बेटी सयानी होकर ब्याह करने लायक हो गयी, इस बात का भान उसे आस-पड़ोस वालों के ताने सुन कर ही होता है. वह करे तो क्या करे? जवान बेटी के अरमानों की डोली उठने का ख्वाब पाले उसके कानों में बिस्मिला खान की शहनाई नहीं बल्कि घरवाली की कर्कश आवाज गूंजती रहती है ‘तोहरे चेंट में पइसा ना हवे त हमार गहना-गुरिया बेचके एकर बियाह करी द.’ घर में बैठी बेटी के मुस्कान उसके चेहरे में ही कहीं खो गयी है. दिल का दर्द दबाते-दबाते होंठ काले पड़ गये हैं. उसके हाथ की लकीरों में क्या है, उसे भले ही न पता हो पर उसे इस बात का गुमान अवश्य है कि ये नेता उसकी तकदीर नहीं बदल सकते. ज्यादातर किसान लोकसभा-राज्यसभा चैनल नहीं देखते. उन्हें इस बात का इल्म नहीं है कि संसद में बैठे माननीय कभी ‘बेटा बूटी’ तो कभी ‘सांवली औरत’ जैसी ऊटपटांग बातों में देश का वक्त जाया कर देते हैं. वह तो यह भी नहीं जानते कि इस देश के प्रधानमंत्री की पत्नी को अपने अधिकारों की लड़ाई आरटीआइ के माध्यम से लड़नी पड़ रही है. खुद कहानी गढ़ने, खुद किरदार बनाने और खुद इल्जाम तय कर खुद ही जज बन जाने का ये गजब दौर है. गुमशुम अटल, न लाल-न कृष्ण, मझधार में मांझी, न नीति-न ईश, डगमगाते विश्वास का दौर..! किसके पास जाएं, किससे करें फरियाद. कौन होगा मददगार, कौन तारणहार..! ऐसे में इस देश के किसानों के मन में यह सवाल जरू र उठता है - न राज है न नाथ है. कोई पप्पू है, कोई फेंकू है. जनता अनाथ है तो नेता कहां है? कौओं की टोली में हंस को ढूंढ़ने का क्या फायदा?
   सच्चई तो यह है कि इस देश के किसान भोले-भाले जरू र हैं पर वे खुद के नाथ हैं. उन्हें भरोसा है अपने हाथ पर. कर्म को सवरेपरि मानने वाला किसान किस्मत और किसी खेवनहार के सहारे की उलझनों से अब बाहर आना चाहता है. ऐसे में अगर कोई किसान शायरी लिखने लग जाये तो उसका पहला शेर यही होगा - कश्तियां ना सही हौसले तो साथ हैं/ कह दो नाखुदाओं से तुम कोई खुदा नहीं. अब राजनीतिक आकाओं को यह बात समझनी ही होगी कि वो दिन चले गये जब छलावे की राजनीति और डपोरशंखी घोषणाओं से किसानों को बहलाया जा सकता था. किसी को कुछ करना ही है तो वह करोड़ों किसानों का दिल जीते..उसका सच्च दोस्त बन कर.

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

12 दिनों में कितना कुछ बदल गया!

नेपाल और आधे भारत में जानलेवा भूकंप. बिहार-झारखंड में आंधी-बारिश से जानमाल की भारी तबाही. 56 दिनों की लंबी छुट्टी के बाद राहुल गांधी की ‘घर वापसी’. जनता परिवार का एक होना और सीपीएम का नेतृत्व सीताराम येचुरी के हाथ में जाना. ये कुछ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की घटनाएं हैं जिनका मैं टीवी-अखबार के जरिये गवाह न बन सका. भतीजी की शादी में शिरकत करके गांव से 12 दिनों बाद लौटने पर इन सभी खबरों से वाकिफ हुआ. घर में जब बेटी की शादी हो तो देश-दुनिया की फिक्र कहां रह जाती है? इंटरनेट, फेसबुक, ब्लॉग, ट्विटर, अखबार, टेलीविजन सबसे दूर..12 दिन. बीते 12 दिनों के अखबार पलटते हुए लग रहा है कि इतने दिनों में वाकई कितना कुछ बदल गया है. हवाई यात्र के लिए चर्चित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली के मेट्रो ट्रेन में सफर करने लगे हैं. यह अलग बात है कि पहली बार दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के बाद केजरीवाल ने जब मेट्रो का सफर किया था तो भाजपा समेत अन्य राजनीतिक दलों ने इसकी खूब आलोचना की थी. कहा था कि यह प्रचार पाने का हथकंडा है. यह अच्छी बात है कि अब उन सभी आलोचकों के ज्ञान चक्षु खुल गये हैं और वह यह समझ गये हैं कि किसी बड़ी शख्सियत का मेट्रो में सफर करना प्रचार पाने का उपक्रम नहीं है. तभी तो सभी चुप हैं. ऐसी ही एक अन्य विस्मयकारी राजनीतिक घटनाक्रम के तहत सोशल मीडिया के ‘पप्पू’ (राहुल गांधी) अब संसद में कुर्ते की आस्तीनें चढ़ाये बिना भाषण देने लगे हैं. यह जानने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा कि 56 दिनों के अज्ञात प्रवास से लौटे राहुल गांधी क्या लोकसभा चुनावों के दौरान बिखरे-बिखरे लगने वाले राहुल से अलग हैं? नयी दिल्ली में ‘आप’ की किसान रैली के दौरान राजस्थान के किसान द्वारा आहत्महत्या कर लेने के बाद राजनीतिक दलों का जो चेहरा सामने आया है वह बेहद निराशाजनक है. भाजपा-कांग्रेस की तो मौकापरस्त राजनीति की पुरानी आदत है, पर आम आदमी पार्टी भी..! राजनीति में कदम पड़ते ही एक कवि (कुमार विश्वास) और पत्रकार (आशुतोष) का भी दंभी और गैर जिम्मेदार हो जाना अनहोनी है. इन दिनों पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद, शाहरुख खान अभिनीत फिल्म ‘कल हो ना हो’ से प्रेरित बॉलीवुड शैली के एक संगीत वीडियो में भारत में जर्मनी के राजदूत माइकल स्टेनर की पत्नी ऐलिसे के साथ डांस करते नजर आ रहे हैं. इन सभी घटनाक्रम को देख-जान कर वाकई लगता है कि भूकंप आया है. सब कुछ हिलता हुआ लग रहा है. उथल-पुथल मची हुई है. बाहर भी, भीतर भी. भूकंप सिर्फ धरती के नीचे नहीं आता है, धरती के ऊपर वालों के भीतर भी आता है. उसके लौट जाने के बहुत बाद तक हम हिलते रहते हैं. बेटी को उसके ससुराल विदा करते हुए एक भूकंप मेरे भीतर भी आया है.. अभी तक हिल रहा हूं.

सोमवार, 23 मार्च 2015

इंतजार में जुबिली पार्क हो गया हूं!

तुम एनएच 33 की तरह व्यस्त रहती हो और मैं तुम्हारे इंतजार में जुबिली पार्क हो गया हूं. जब मैं तुम्हारे इंतजार में थक जाता हूं तो उन 86 बस्तियों सा महसूस करने लगता हूं जिन्हें आज तक सिर्फ आश्वासन ही मिला है. फिर भी नसों में उम्मीदों का उबाल इतना तगड़ा है कि सांसे टूटती नहीं हैं. हां, कभी-कभी यह भी लगता है कि हमारी जिंदगी में मानगो पुल सा जाम लगने के कारण ठहराव आ गया है और कभी-कभी गरमी की तपती दोपहरी में टेल्को एरिया की सड़कों जैसी वीरानगी छा जाती है. फिर भी मैं सालाना आयोजन ‘फ्लावर शो’ की ताजगी और रंगीनियों जैसी ही खुशी देने वाले तुम्हारे इंतजार में हर दिन संस्थापक दिवस मनाता रहता हूं. सच तो यह है कि जब तुम बिष्टुपुर में होती हो तब मैं मानगो सा महसूस करता हूं. यह ‘खास’ और ‘आम’ होने का अहसास नहीं बल्कि समयानुकूल सच्चाइयों का सामना करना भर है. तुम्हारे साथ जब छप्पनभोग में स्वादिष्ट मिठाइयां खा रहा होता हूं तो तुम मुङो रसगुल्ला जैसी लगती हो, पर तन्हाइयों के वक्त मैं गोलगप्पा के उस फुचके जैसा हो जाता हूं जिसकी वैल्यू मसाला पानी के बिना नहीं होती. तुम्हारा स्वभाव मुङो कभी-कभी जलेबी जैसा भी लगता है. जिसे गरम खाओ तो मुंह जलता है और ठंडा खाने पर बेस्वाद लगता है. सीरियसली, जुबली पार्क मुझमें इस कदर बस गया है कि मैं तुम्हारे साथ साकची जाते वक्त स्टेडियम की तरफ से न जाकर जुबिली पार्क की तरफ से ही जाता हूं. उसकी खुली हवाओं को अपने नथुनों में भरते हुए. हरे-भरे पेड़ों और फूलों की ताजगी को मन ही मन समेटते हुए. जब तुम मेरे साथ होती हो मेरा मन साकची के मंगल बाजार की तरह गुलजार रहता है. जिसमें महंगी और ब्रांडेड चीजें नहीं, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी में काम आनेवाले जरूरी सामान बहुत किफायती दामों में मिल जाते हैं. क्या हमारा प्यार सचमुच जमशेदपुर जैसा है? इतने त्योहार, इतने सेलिब्रेशन, इतने आयोजन होते हैं कि पता ही नहीं चलता कि कौन असली है और कौन बनावटी. मिश्रित संस्कृति ने शहर की पहचान छीन ली है. न कोई अपनी भाषा, न कोई अपना स्वभाव. लोग यहां होकर भी यहां के नहीं होते. यहां सबका मालिक एक है, पर सब खुद भी मालिक हैं अपनी मरजी के. दिखने में आयरन, पर अंदर बज रहा सायरन! अब छोड़ो भी. क्या रखा है इन शिकवा-शिकायतों में. मेरे मन में तुम्हारे प्रति वैसी ही अगाध श्रद्धा है जितनी शहरवासियों के मन में जमशेदजी टाटा के लिए. हां, एक बात मैं जरू र कहूंगा कि तुम अपने पहनावे से बागबेड़ा जैसी लगती हो. सीएच एरिया से बिष्टुपुर वाले रोड जैसा नया लुक  आजमा कर देखो. बेहद खूबसूरत लगने लगोगी. मुङो उम्मीद है कि तुम इस प्रपोजल को मेरीन ड्राइव के मॉल और मल्टीप्लेक्स जैसा लटकाने के बजाय टाटा वर्कर्स युनियन के चुनाव जैसा शीघ्र ही मूर्त रू प में परिणत कर दोगी.

बुधवार, 11 मार्च 2015

ट्रैफिक सिगनल वाली मलाला

नयी दिल्ली के किसी रेड सिगनल पर जैसे ही गाड़ियों का काफिला रुका कई बच्चे दौड़ते हुए कारों के बंद शीशे खटखटाने लगे. किसी के हाथ में लाल गुलाब का गुलदस्ता तो किसी के पास खिलौने. कई के पास किताबें भी थी. वे बारी-बारी से बिना प्रतीक्षा किये सभी के पास जा रहे थे. एक 12-14 साल की लड़की हाथ में कई किताबें लिए मेरे  पास भी आयी और एक किताब ‘आइ एम मलाला’ को मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली-‘शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त पाकिस्तान की इस बहादुर लड़की की किताब ले लो साहब.’ मेरी निगाह उस किताब के बजाय उस मासूम-सी लड़की पर टिक गयी थी. लाल फीते की दो चोटियां उसके कंधे पर लटक रही थी. गेहुंआ रंग, गोल चेहरा, इकहरा बदन, मोतियों जैसे दांत. साधारण से कपड़े में भी वह बहुत खुबसूरत दिख रही थी. मुङो लगा जैसे उसमें मलाला की रूह उतर आयी हो. उतनी ही निश्चल, उतनी ही मोहक लग रही थी वह.  इतने में उसने अमर्त्य सेन की किताब ‘ऐन अनसरटेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शन’  दिखाते हुए कहा ‘तो ये ले लो साहब. अच्छी है.’ मैं अपलक उसे देख ही रहा था. उसने यह भांप लिया कि मैं उसकी किताबें नहीं खरीदूंगा. यह सच था. मेरे पास उस वक्त उतने पैसे नहीं थे कि मैं किताब ले पाता. लगा वह जाने वाली है. मैंने पूछा- तुम स्कूल नहीं जाती, तुम्हारे मां-बाप क्या करते हैं, तुम्हारा नाम क्या है?  चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा ‘आइ एम मलाला.’ और भीड़ में कहीं गुम हो गयी. सिगनल ग्रीन हो चुका था, गाड़ियां आगे की ओर सरकने लगी थीं. मलाला की नन्ही-सी कलम बड़े-बड़े हथियारों के सामने जिस ताकत से खड़ी रही और आकर्षक जीत हासिल की उसने हर लड़की को विपरीत हालातों में मुस्कुराने का हसीन जज्बा दिया है. बधाई मलाला! यह मसाल जलती रहनी चाहिए. पर, दुख होता है यह देख कर दिल्ली जैसे महानगर में ट्रैफिक सिगनल पर मासूम लड़के/लड़कियां इस तरह पेट पालने के लिए विवश हैं. बच्चों के आर्थिक उत्पीड़न की समाप्ति तथा सभी बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने की जो लड़ाई मलाला ने पाकिस्तान के एक प्रांत से शुरू  की थी, अब वह ग्लोबल हो चुकी है. दुनिया के लगभग हर मुल्क में मलाला के प्रशंसक हैं. तो क्या जो लड़की मुङो ट्रैफिक सिगनल पर किताबें बेचती मिली थी वह यह सब नहीं जानती? उसके हाथ में तो ‘आइ एम मलाला’ नामक किताब भी थी. तो फिर कैसे पूरा होगा मलाला का वह सपना जो उसने दुनिया भर की लड़कियों की बेहतरी के लिए देखा है. क्यूंकि मलाला अब एक लड़की का नाम भर नहीं, वह एक प्रतीक बन गयी है. भारत में ऐसे बच्चों की संख्या भी बहुत है जिनके मां-बाप अपनी तरक्की के लिए उन्हें पढ़ने नहीं देते. रोजी-रोटी उनकी पहली प्राथमिकता है. क्या यहां भी कोई मलाला आकर रोशनी फैलायेगी?

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

रोटी की जगह अब मोबाइल चबाएंगे!

रफू मियां जोर-जोर से खबर बांच रहे थे ताकि अगल-बगल बैठे उनके यार-दोस्त ठीक से सुन-समझ सकें. ‘रिटायर्ड’ लोगों की यह ‘मित्र मंडली’ प्रतिदिन झुमरू  चाय वाले के यहां पौ फटते ही इकट्ठी हो जाती है. रफू मियां इस टीम के मेठ (लीडर) हैं. क्योंकि उनको दूसरे का बोलना ‘अच्छा’ नहीं लगता इसलिए अखबार पढ़ कर सुनाने का काम लीडर होने का फायदा उठाते हुए वे खुद ही करते हैं. राजनीतिक खबरों में उनकी दिलचस्पी अधिक है. उच्चरण करते हुए शब्दों को लगभग चबाकर बोलते हैं. पहले पेज से शुरू  होकर अब वे देश-विदेश पेज तक पहुंच चुके हैं. उनकी आंखें अचानक से चमक उठी. पहले बांची जा चुकी खबरों पर चर्चा को बीच में ही रोकते हुए वह जोर-जोर से बोलने लगे- ‘‘नौ महीने पुरानी सरकार के प्रधानमंत्री ने फिर एक नयी घोषणा कर दी है. मोदी ने  मोबाइल फोन पर दुनिया ले आने का आह्वान करते हुए कहा है कि ई-गवर्नेस पर नजर डालते समय हमें पहले मोबाइल के बारे में सोचना चाहिए और इस प्रकार एम-गवर्नेस अर्थात ‘मोबाइल गवर्नेस’ को महत्व देना चाहिए.’’ मोबाइल की चर्चा सुनकर वहां बैठे रफू मियां की मित्र मंडली में ऐसी खलबली मच गयी मानो उन्हें किसी ने पत्थर दे मारा हो. झंझट दास कहने लगे ‘‘इस कलमुंहे मोबाइल ने तो जिंदगी हराम कर रखी है. चिट्ठी-पत्री और शुभकामना संदेश को इतिहास की ओर धकेल दिया है. वहीं प्रेमी-प्रेमिकाओं की तो चांदी हो गयी, जब चाहे तब इश्क लड़ाओ. कुछ लोग रहते कहीं हैं, बताते कहीं और हैं. ये उल्लू बनाविंग का मुख्य साधन हो गया है.’’ इतने में सबसे किनारे बैठे पोपट लाल ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा ‘‘सुना है आजकल मैसेज फॉरवर्ड करने से भगवान को प्रसन्न करने का प्रयोजन भी मोबाइल से होता है. लिखा रहता है - 11 या 21 लोगों को भेजो फिर देखो चमत्कार. चमत्कार तो होता है पर मैसेज फॉरवर्ड करने वाले के बैलेंस कम होने का.’’ मिसिर जी बोले ‘‘मोबाइल की माया तो इतनी निराली है कि लोगबाग मिस-कॉल देकर अपनी जवाबदेही से मुक्त हो जाते हैं. फोन लगाओ किसी को तो लगता है किसी और को. कभी नेटवर्क फेल तो कभी बेमतलब बैलेंस गायब. किसी भी कंपनी का सिम लो, हालत सबकी एक जैसी ही है. जब मोबाइल पर बात ही ठीक से नहीं हो पाती तो और क्या होगा भला?’’ सभी बोल रहे थे पर सबसे अधिक मुखर शख्स मौन था. रफू मियां की चुप्पी सबको खलने लगी. किसी को भी इसका कारण समझ में नहीं आ रहा था. पोपट लाल ने अपने अंदाज में छेड़ा ‘‘क्या हुआ मियां तुम्हारी जुबान क्यों खामोश है, किसी ने सिम लॉक कर दिया क्या?’’ रफू मियां धीरे से बस इतना बोले ‘‘पता नहीं नेता देश को कहां ले जायेंगे, रोटी की जगह गरीब अब मोबाइल चबायेंगे. नौ महीने में न तो विकास हुआ, न प्रगति. मोदी गवर्नमेंट कुछ नहीं कर पा रही अब मोबाइल गवर्नेस की बाट देखिये!’’

बुधवार, 28 जनवरी 2015

गोरेपन की देवी को एक सांवली लड़की का खत

निखरे-निखरे रूप, दमकती त्वचा और लंबे काले-घने जुल्फों वाली ‘गोरेपन की देवी’ आपको एक सांवली लड़की की तरफ से बार-बार प्रणाम है. आप ये कहती/चाहती हैं कि आपका क्रीम लगा कर समस्त जहान की लड़कियां गोरी-सुंदर दिखने लगेंगी/लगें. आपके इस दावे में कितना दम है, मैं यह तो नहीं जानती और न ही जानने में कोई रुचि है पर टीवी और अखबार में आपकी सुंदर सी तसवीर देख कर मेरे जैसी सांवली लड़कियों के माता-पिता पर क्या गुजरती है यह आपने कभी सोचा है? इस देश में आज भी अधिकांश माता-पिता लड़की के जन्म लेते ही उसकी शादी और दहेज की चिंता में असमय बूढ़े हो जाते हैं. अगर लड़की सांवली या काली हुई तब तो वे उसे खुद के लिए कोई दैवीय प्रकोप ही मान लेते हैं. क्योंकि अखबारों या वेबसाइटों पर शादी के लिए दिये गये विज्ञापन इस बात के उदाहरण हैं, जिनमें ‘फेयरनेस’ और ‘ब्यूटीफुल’ के बाद ही दूसरी विशेषताओं का स्थान आता है. क्या सांवली लड़कियां सुंदर नहीं होती?  हे गोरेपन की देवी! मैं आपको बार-बार नमन करती हूं. वैसे तो आप ‘अंतर-यामी’ हैं फिर भी मैं अपने मन की कुलबुलाहटों को आप तक पहुंचाना चाहती हूं. आखिर ऐसा क्यूं है कि  किसी लड़की का सांवला या गोरा होना उसके वजूद से जुड़ जाता है. क्यों कोई उस लड़की के अंतर्मन की सुंदरता को नहीं देख पाता. क्यों कोई जाने-माने शायर कैफी आजमी की तरह नहीं कहता ‘सांवला होना ठीक है और काला होना सचमुच में सुंदर है.’ क्यों अभिभावक अपनी बच्चियों को ‘बार्बी डॉल’ की जगह सांवली या काली गुड़िया तोहफे में नहीं देते.  हे गोरेपन की देवी! आप मेरी यह अज्ञानता दूर करें कि क्या गोरी लड़कियां ज्यादा प्रतिभावान होती हैं. या वे अपने माता-पिता, जीवनसाथी और ससुराल वालों को ज्यादा सम्मान देती हैं. आप ग्लैमर जगत की मोहतरमा हैं आपको तो मालूम ही होगा कि शबाना आजमी, काजोल, रानी मुखर्जी और नंदिता दास का रंग गोरा नहीं था. क्या वे अपने समय की कमजोर शख्सीयत हैं? तो फिर क्यों हमें विज्ञापनों के माध्यमों से यह बताने की कोशिश की जाती है कि फलां क्र ीम लगा कर या किसी खास साबुन से नहा कर गोरा और सुंदर बना जा सकता है और ‘जो सुंदर है, वही सफल है.’ क्यों लड़कियों के मन में पहले कुंठा पैदा की जाती है और फिर इसी कुंठा को भुनाते हुए गोरेपन को उनके सामने ‘पावर’ या हथियार की तरह पेश किया जाता है. तमाम सौंदर्य प्रतियोगिताएं भी इसीलिए आयोजित की जाती हैं कि लड़कियों को यह अहसास कराया जाए कि खूबसूरत दिखना बेहद जरूरी है. हे गोरेपन की देवी! कोई ऐसी क्रीम क्यों नहीं बनायी जाती जिससे लोगों का मन-मस्तिष्क साफ हो सके और उनकी दूषित मानसिकता में बदलाव हो. ताकि इस समाज में सांवली/गोरी सभी लड़कियां शुकून से जी सकें. - एक दुखियारी सांवली लड़की.

बुधवार, 14 जनवरी 2015

पापा, हम लोग कवन जात हैं?

जब हम पैदा हुआ रहा, हमको अपना जात-धरम कुछो मालूम नहीं रहा. मास्टर जी जब हाजिरी बनावत रहें, उ समय सभन लक्ष्कन के किसिम-किसिम का नाम पुकारें.. सिंह, ठाकुर, पांडेय, मांझी, महतो, प्रसाद, हुसैन, अहमद.. हम तो कनफुजिया ही गये. बाप रे बाप.. इ सब का है? सुबह-सुबह कवनो चाय पीने समय हमरे घर आता तो दादी उके अलग बरतन में चाय भिजवातीं. हमरा दिमाग चकरा जाता कि अलग-अलग बरतन काहे? दादी बहुत प्यार करत रहीं हमका. उनही से एक दिन मालूम पड़ा कि हमन के जात पंडित है.. दूसरे जात का छूआ हमनी के खाइल बरजित रहे. हम अभियो नाहीं समझ पावत रहीं कि आखिर दूसर जात का होत है और इके पहचानत कइसे हैं. हम जब कुछ बड़ा हुवै तो हमैं हिस्टरी में बड़ा इंटेरेस्ट आवै लगा. हिस्टरी में हम पढ़ा कि मुसलमान लोग अपने लिए अलग पाकिस्तान बनवाया. हम सोचा कि हमरा दोस्त अनवर फिर हियां कैसे रह गया. एक दिन हम अनवर से पूछ बैठा, ‘‘जब मुसलमान लोग अपने लिए पाकिस्तान बनाया तब तुम पाकिस्तान काहे नहीं गया.’’ अनवरवा हमरा मुंह ताकता रहा, बोला कुछो नहीं. हम उके लेके ओकरे घर गये. उइके अब्बा से इहे बतिया फिर पूछे तो मुस्कराने लगे.. हमरा हाथ पकड़ के बोले- ‘‘पाकिस्तान कइसे जाते बेटवा, हमै तो यहीं की धरती प्यारी है. पाकिस्तान तौ जिन्ना बनाए हैं बेटवा, उन्हें गवर्नर जनरल बनै का रहा. हमें तो यहीं किसानी करना मंजूर रहा बेटवा.’’ नौकरी करने मेरठ पहुंचे तो हुआं भी गड़बड़झाला देखै का पड़ा. हुआं एगो तिवारी जी मिले. उ हमको ढेरे दिन तक भूमिहार समझत रहें. एही चक्कर में ढेरे बार उ हमरे कान में फुसफसा के पंडित लोगन के बुराई करत रहें. एगो दोसर दोस्त ने हमसे कहा कि आप इन्हैं बताते काहे नाहीं कि आप कौन हैं. हम कहा- ‘‘जे जऊन कहता है कहन दो, हम काहे अपना एनर्जी सबका समझावै मां भेस्ट करैं.’’ एइके बाद हम इत्मीनान से रह रहे थे. जमशेदपुर आये भी कई साल होई गवा. सोचे अब सब ठीक.. तभी एक दिन चौथी क्लास में पढ़ रही हमरी बेटी ने हमसे पूछ लिया कि हम लोग कवन जात हैं? सवाल सुन के हम उके टुकुर-टुकुर देखन लगे.. हमारी सिरीमतीजी ने उससे पूछा- ‘‘काहे, तुम इ सवाल काहे कर रही आज?’’ उ बोली- ‘‘मेरी एक दोस्त ने पूछा है.’’ फिर सिरीमतीजी हमरा मुंह देखन लगीं. हमरे दिमाग में उथल-पुलथ मच गया.. मोहन भागवत जी कहत हैं कि जवन भी हिंदुस्तान में पैदा हुआ है ऊ सब हिंदू है, अऊर ओवैसी जी कहत हैं कि हर केऊ मुसलिम पैदा होता है. एक जगह हम पढ़ा हूं कि वेद में लिखा है कि हर केऊ शूद्र पैदा होता है अऊर संस्कार से आदमी अलग-अलग वर्ण वाला होय जाता है.. एगो निहोरा है : हम सब अपने लक्ष्कन के का सिखाईं..हमही का तय करे दो नो भागवतो/ओवैसियो!